अपनी सरकार की तीसरी वर्षगांठ पर यूपीए -2 यह संदेशदेने में सफल रहा है कि उसकी राजनीतिक दशा अभी उतनीबुरी नहीं हुई है , जितनी बाहरी हलकों में मानी जा रही है।सरकार के रिपोर्ट कार्ड में कोई दम नहीं था। उसके दोमहत्वपूर्ण घटकों - तृणमूल कांग्रेस और डीएमके के शीर्ष नेताभी अपनी खुली या छिपी नाराजगी जताते हुए मुख्यआयोजन से अनुपस्थित रहे। लेकिन यूपीए से बाहर के कुछबड़े उत्तर भारतीय नेताओं की इसमें मौजूदगी से अटकलों कीदिशा बदल गई है। मुलायम सिंह यादव , लालू प्रसाद यादवऔर राम विलास पासवान अपनी - अपनी पार्टियों के साथपहले भी यूपीए सरकार का समर्थन कर रहे थे , लेकिनपिछले तीन सालों में कांग्रेस के साथ उनका रिश्ता ढाल औरतलवार जैसा ही था। पिछले मंगलवार की रात यूपीए केवार्षिक आयोजन में दोनों तरफ से यह संकेत देने की कोशिश हुई कि यह रिश्ता सकारात्मक दिशा में बढ़ रहा है।हिंदीभाषी क्षेत्रों में कांग्रेस के अलग - थलग पड़ने की वजह उसकी एक बुनियादी गलतफहमी ही थी। वह अभी तकइस उम्मीद में जी रही थी कि नई पीढ़ी के सर्वमान्य नेता के रूप में राहुल गांधी के उदय के साथ उत्तर प्रदेश औरबिहार में उसका खिसका हुआ जनाधार वापस उसकी झोली में चला आएगा। दोनों राज्यों के विधानसभा चुनावों मेंपार्टी के खराब प्रदर्शन और इसके समानांतर केंद्र में उसके बढ़ते अलगाव ने शायद कांग्रेस आलाकमान को हकीकतके करीब ला दिया है। राजनीति की बेरहम दुनिया में किसी पार्टी या नेता की बुरी से बुरी बात बर्दाश्त कर लीजाती है , लेकिन उसका कमजोर होना हरगिज बर्दाश्त नहीं किया जाता। यूपीए सरकार और कांग्रेस नेतृत्व नेपिछले दिनों कई गलतियां की हैं और लोग उसके प्रदर्शन से काफी क्षुब्ध हैं। लेकिन लोगों को सबसे ज्यादा गुस्साउनके ढुलमुलपन पर आ रहा है। कभी करुणानिधि अपनी किसी अतार्किक मांग पर प्रधानमंत्री के हाथ उमेठते हैं ,तो कभी ममता बनर्जी देश की विदेश नीति तक का फैसला करती नजर आती हैं। ऐसे में सरकार को सबसे पहलेअपने घटकों और सहयोगियों को यह संकेत देना चाहिए कि उसके झुकने की एक सीमा है , जिससे आगे बढ़ने कादंड सरकार के साथ खुद उन्हें भी भुगतना पड़ेगा। सरकार ऐसा कर पाएगी या नहीं , यह उसका नेतृत्व कर रहेलोगों की इच्छाशक्ति पर निर्भर करेगा। लेकिन इसके लिए अगर सरकार को किसी बाहरी मदद की जरूरत महसूसहो रही थी , तो वह लालू , मुलायम और पासवान की नजदीकी से फिलहाल उसे हासिल हो सकती है। राष्ट्रपतिचुनाव इस नजदीकी को आजमाने का एक अच्छा मुकाम है। इससे आगे मजबूती का एक संकेत सरकार और संगठनमें मौजूद कांग्रेसी नेताओं की फेंटफांट और मजबूत आर्थिक फैसलों के जरिये दिया जा सकता है। गठबंधन काभविष्य तो इस देश के मतदाता सरकार के प्रदर्शन के आधार पर ही तय करेंगे। लेकिन आने वाले दिनों में अपनाप्रदर्शन सुधारने के साथ - साथ उसे लोगों के साथ अपना संवाद भी बेहतर बनाना होगा , जिसकी शुरुआत यहां सेहो सकती है।
अपनी सरकार की तीसरी वर्षगांठ पर यूपीए -2 यह संदेशदेने में सफल रहा है कि उसकी राजनीतिक दशा अभी उतनीबुरी नहीं हुई है , जितनी बाहरी हलकों में मानी जा रही है।सरकार के रिपोर्ट कार्ड में कोई दम नहीं था। उसके दोमहत्वपूर्ण घटकों - तृणमूल कांग्रेस और डीएमके के शीर्ष नेताभी अपनी खुली या छिपी नाराजगी जताते हुए मुख्यआयोजन से अनुपस्थित रहे। लेकिन यूपीए से बाहर के कुछबड़े उत्तर भारतीय नेताओं की इसमें मौजूदगी से अटकलों कीदिशा बदल गई है। मुलायम सिंह यादव , लालू प्रसाद यादवऔर राम विलास पासवान अपनी - अपनी पार्टियों के साथपहले भी यूपीए सरकार का समर्थन कर रहे थे , लेकिनपिछले तीन सालों में कांग्रेस के साथ उनका रिश्ता ढाल औरतलवार जैसा ही था। पिछले मंगलवार की रात यूपीए केवार्षिक आयोजन में दोनों तरफ से यह संकेत देने की कोशिश हुई कि यह रिश्ता सकारात्मक दिशा में बढ़ रहा है।हिंदीभाषी क्षेत्रों में कांग्रेस के अलग - थलग पड़ने की वजह उसकी एक बुनियादी गलतफहमी ही थी। वह अभी तकइस उम्मीद में जी रही थी कि नई पीढ़ी के सर्वमान्य नेता के रूप में राहुल गांधी के उदय के साथ उत्तर प्रदेश औरबिहार में उसका खिसका हुआ जनाधार वापस उसकी झोली में चला आएगा। दोनों राज्यों के विधानसभा चुनावों मेंपार्टी के खराब प्रदर्शन और इसके समानांतर केंद्र में उसके बढ़ते अलगाव ने शायद कांग्रेस आलाकमान को हकीकतके करीब ला दिया है। राजनीति की बेरहम दुनिया में किसी पार्टी या नेता की बुरी से बुरी बात बर्दाश्त कर लीजाती है , लेकिन उसका कमजोर होना हरगिज बर्दाश्त नहीं किया जाता। यूपीए सरकार और कांग्रेस नेतृत्व नेपिछले दिनों कई गलतियां की हैं और लोग उसके प्रदर्शन से काफी क्षुब्ध हैं। लेकिन लोगों को सबसे ज्यादा गुस्साउनके ढुलमुलपन पर आ रहा है। कभी करुणानिधि अपनी किसी अतार्किक मांग पर प्रधानमंत्री के हाथ उमेठते हैं ,तो कभी ममता बनर्जी देश की विदेश नीति तक का फैसला करती नजर आती हैं। ऐसे में सरकार को सबसे पहलेअपने घटकों और सहयोगियों को यह संकेत देना चाहिए कि उसके झुकने की एक सीमा है , जिससे आगे बढ़ने कादंड सरकार के साथ खुद उन्हें भी भुगतना पड़ेगा। सरकार ऐसा कर पाएगी या नहीं , यह उसका नेतृत्व कर रहेलोगों की इच्छाशक्ति पर निर्भर करेगा। लेकिन इसके लिए अगर सरकार को किसी बाहरी मदद की जरूरत महसूसहो रही थी , तो वह लालू , मुलायम और पासवान की नजदीकी से फिलहाल उसे हासिल हो सकती है। राष्ट्रपतिचुनाव इस नजदीकी को आजमाने का एक अच्छा मुकाम है। इससे आगे मजबूती का एक संकेत सरकार और संगठनमें मौजूद कांग्रेसी नेताओं की फेंटफांट और मजबूत आर्थिक फैसलों के जरिये दिया जा सकता है। गठबंधन काभविष्य तो इस देश के मतदाता सरकार के प्रदर्शन के आधार पर ही तय करेंगे। लेकिन आने वाले दिनों में अपनाप्रदर्शन सुधारने के साथ - साथ उसे लोगों के साथ अपना संवाद भी बेहतर बनाना होगा , जिसकी शुरुआत यहां सेहो सकती है।
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